देखे जबरदस्त के.डी न्यूज़ यूपी की रिपोर्ट,आखिर मेल मिलाप तो चाचा भतीजे में हो ही गई, फिर क्यों मिर्ची भाजपा को लग गई?

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मेल-मिलाप तो उत्तर प्रदेश में चाचा-भतीजे में हुआ पर 440 वोल्ट का करंट भाजपा को लगा। अखिलेश यादव और मैनपुरी लोकसभा उपचुनाव की उम्मीदवार डिंपल यादव ने मनुहार की तो शिवपाल यादव मान गए। बहू की जीत को यादव परिवार की आन-बान-शान का मुद्दा बताते हुए भाजपा उम्मीदवार की जमकर आलोचना की। पूरा अतीत खंगाल दिया कि कैसे रघुराज सिंह शाक्य ने उन्हें धोखा दिया। सारे अहसान पलक झपकते भूल गए। क्लर्क की नौकरी दिलाने से लेकर विधायक और सांसद तक सब कुछ सपा ने दिया। पर जा मिले भाजपा के साथ।

रघुराज सिंह शाक्य की पहचान शिवपाल के करीबी के रूप में ही ज्यादा ही रही हैं

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दरअसल, रघुराज सिंह शाक्य की पहचान शिवपाल के करीबी के रूप में ही ज्यादा रही है इलाके में। बहरहाल शिवपाल यादव के साथ आ जाने से जहां अखिलेश यादव की मैनपुरी सीट बचाने की चिंता कुछ कम हुई वहीं भाजपाई आपा खो बैठे। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने तो उन्हें पेंडुलम और फुटबाल तक कह दिया। यहां तक तो फिर भी गनीमत थी पर दो प्रतिक्रिया ज्यादा तीखी नजर आई। एक तो शिवपाल यादव का सुरक्षा आवरण घटा दिया दूसरे लखनऊ के गोमती रिवर फ्रंट प्रोजेक्ट की सीबीआइ जांच के दायरे में शिवपाल यादव को भी लाने का एलान। हालांकि शिवपाल डरे नहीं।

पेंडुलम और फुटबाल कौन है, यह तो मैनपुरी का चुनावी नतीजा तय कर देगा।-शिवपाल यादव

उन्होंने फरमाया कि पेंडुलम और फुटबाल कौन है, यह तो मैनपुरी का चुनावी नतीजा तय कर देगा। शिवपाल के कंधे पर बंदूक चलाकर भतीजे अखिलेश को निशाना बनाने के अपने खेल को बिगड़ते देखकर भाजपा को गुस्सा आना स्वाभाविक था। पर, ऐसी प्रतिक्रिया ने शिवपाल यादव को लोगों की नजर में प्रतिशोध की राजनीति का शिकार बनता दिखाकर उनका लाभ ही ज्यादा किया है।

गायत्री प्रजापति के खनन घोटाले में साधना गुप्ता और उनके बेटे…….

सपाई खुलेआम कह रहे हैं कि भाजपा अपने विरोधियों पर केंद्रीय एजंसियों का चाबुक चलाती है। अपर्णा यादव भी तो इसी तरह की मजबूरी के कारण भाजपा में आई थी। गायत्री प्रजापति के खनन घोटाले में साधना गुप्ता और उनके बेटे प्रतीक यादव भी केंद्रीय एजंसियों के चक्रव्यूह में जो फंस गए थे। भाजपा में शामिल होकर अपर्णा ने कम से कम पति और सास (अब दिवंगत) की चिंता तो मिटा ही दी थी। एजंसियों का डर न होता तो बसपा सुप्रीमो मायावती भी सत्तारूढ़ भाजपा की जगह विपक्षी सपा पर ही अपना हमला क्यों जारी रखती।

मध्यप्रदेश में कमलनाथ अपनी सरकार गवां ही बैठे थे। महज अपनी अकड़ और ठसक से–


जनता अगर कांग्रेस से रूठी है तो इसके लिए जवाबदेह किसी हद तक पार्टी के नेता और उनका आचरण भी है। राजस्थान में दो नेताओं के आपसी झगड़े से पार्टी का नुकसान नहीं हो, कौन यकीन करेगा। इससे पहले मध्यप्रदेश में कमलनाथ अपनी सरकार गवां ही बैठे थे। महज अपनी अकड़ और अहम के कारण। अगर ज्योतिरादित्य सिंधिया से बनाकर रखी होती तो क्यों गिरती उनकी सरकार। लेकिन सरकार से ज्यादा प्यार अपनी अकड़ से था।

बंदर तो बिल्लियों का माल तभी डकारता है जब वे आपस में लड़ती हैं


भाजपा को दोष देने से तो कुछ हासिल हुआ नहीं। बंदर तो बिल्लियों का माल तभी डकारता है जब वे आपस में लड़ती हैं। बगावत छत्तीसगढ़ में भी साफ दिखने लगी थी। लेकिन यह भी सच है कि राजस्थान जैसी कटुता कहीं नहीं दिखी। सवाल यह है कि अशोक गहलोत ने सचिन पायलट को अब दो साल बाद गद्दार क्यों कहा वह भी तब जब राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा चल रही है। फिर हफ्ते भर के भीतर ही उनके साथ साझा पत्रकार वार्ता भी कर ली।

गुटबाजी और अंदरूनी फूट को तो उन्होंने अपने एक गैर जरूरी बयान से हवा दे ही दी।

इससे पहले कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव के वक्त भी गहलोत ने कम किरकिरी नहीं कराई थी पार्टी और सोनिया-राहुल की। राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा शनिवार को राजस्थान में दाखिल होगी। गहलोत ने दावा किया है कि संकट पार्टी पर हो तो सब कांग्रेसी एक हो जाते हैं। कौन नहीं जानता कि महासचिव (संगठन) केसी वेणुगोपाल के हस्तक्षेप के बाद ही गहलोत राह पर आए। लेकिन गुटबाजी और अंदरूनी फूट को तो उन्होंने अपने एक गैर जरूरी बयान से हवा दे ही दी। गहलोत को कांग्रेस में जादूगर और संकटमोचक की संज्ञा दी गई थी। लेकिन काफी समय से वे पार्टी के लिए संकट के द्योतक ही बने हुए हैं।

कांग्रेस पार्टी में कैसी धाक थी कैप्टन अमरिंदर सिंह की।?


कांग्रेस पार्टी में कैसी धाक थी कैप्टन अमरिंदर सिंह की। महाराजा पटियाला के साहबजादे तो थे ही, राजीव गांधी के सखा भी थे। प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे। पार्टी में उनकी इच्छा के बिना पत्ता भी नहीं हिलता था। नवजोत सिंह सिद्धू ने खूब तेवर दिखाए पर कैप्टन ने उन्हें उपमुख्यमंत्री बनाना तो दूर कोई वजनदार मंत्रालय तक नहीं दिया। लेकिन, पिछले साल मुख्यमंत्री पद से हटाए जाने के बाद वे आपा खो बैठे। कांग्रेस से इस्तीफा दिया। अपनी अलग पार्टी पंजाब लोक कांग्रेस बनाई।

तीन महीने के इंतजार के बाद भाजपा ने उन्हें (कैप्टन)झुनझुना थमा दिया।

फिर, भाजपा के साथ मिलकर विधानसभा चुनाव लड़ा। लेकिन अरविंद केजरीवाल की पार्टी ने सूबे में ऐसी झाडू चलाई कि कैप्टन खुद भी विधानसभा चुनाव हार गए। तभी तो इस साल सितंबर में अपनी पार्टी का भाजपा में विलय कर दिया। लेकिन, तीन महीने के इंतजार के बाद भाजपा ने उन्हें झुनझुना थमा दिया।

पुनर्वास के नाम पर राष्ट्रीय कार्यकारिणी का सदस्य बना दिया। भाजपा कैसे भूल सकती है कि 2014 में कैप्टन ने ही पार्टी के कद्दावर नेता अरुण जेटली को अमृतसर में लोकसभा चुनाव हराकर गहरा झटका दिया था। अस्सी पार के हो चुके हैं कैप्टन। भाजपाई भीड़ का हिस्सा होने से अच्छा तो यही होता कि सियासत से संन्यास ले लेते।

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