#भारतसरकार की ओर से #महिलाओं और #बच्चों के #स्वास्थ्य पर किए जाने वाले #सर्वे ने किया #हैरान।

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भारत सरकार की ओर से महिलाओं और बच्चों के स्वास्थ्य पर किए जानेवाले सबसे समग्र सर्वे, नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (5), के नतीजे जब जारी हुए तो एक आँकड़े ने सबको हैरान कर दिया.

सर्वे में पाया गया कि हर 1,000 मर्दों के अनुपात में 1,020 औरतें हैं. इससे पहले साल 2011 की जनगणना में हर 1,000 मर्दों के अनुपात में 943 औरतें गिनी गईं थीं.

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इस बढ़त को समझने के लिए सबसे पहले ये ध्यान रखना ज़रूरी है कि ये तुलना भ्रामक है. नैश्नल फैमिली हेल्थ सर्वे एक ‘सैम्पल सर्वे’ है और जनगणना एक ‘गिनती’ है.

नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (5) में करीब छह लाख परिवारों का सर्वेक्षण किया गया जबकि जनगणना देश की सवा अरब आबादी की गिनती है.

मुंबई में स्वास्थ्य-संबंधी मुद्दों पर काम करने वाली गैर-सरकारी संस्था ‘सेहत’ (CEHAT) की संयोजक संगीता रेगे ऐसा ही मानती हैं और एक दूसरी वजह की ओर ध्यान खींचती हैं.

वो कहती हैं, “नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे अपने नतीजों में माइग्रेशन को ध्यान में नहीं रखता, घरों में जब सर्वेक्षण होता है तो मर्दों के दूसरे गांव या शहर में काम करने की वजह से औरतों की तादाद ज़्यादा मिल सकती है.”

क्या इसका मतलब ये कि सर्वे के आँकड़े गलत हैं?

सरकार की ओर से ये सर्वे ‘इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पॉपुलेशन साइंसेस’ ने किया है.

संस्थान में ‘माइग्रेशन एंड अर्बनाइज़ेशन स्टडीज़’ के प्रोफसर आर.बी. भगत ने माना कि औरतों और मर्दों का लिंगानुपात जानने के लिए जनगणना ज़्यादा भरोसेमंद तरीका है.

उन्होंने कहा, “सैम्पल सर्वे में हमेशा सैम्पलिंग की गलती की संभावना रहती है जो आबादी की गिनती में नहीं होगी. जब अगली जनगणना होगी तब 2011 के मुकाबले लिंगानुपात बेहतर ही होना चाहिए पर मेरे खयाल से इतनी ज़्यादा बढ़त नहीं दिखेगी।

सामाजिक सरोकारों की शोध संस्था, ‘सेंटर फॉर स्ट्डी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज़’, के पूर्व निदेशक संजय कुमार भी सर्वे के नतीजों से हैरान हैं लेकिन उसकी कार्य प्रणाली से आश्वस्त हैं.

संजय कुमार कहते हैं, “सैम्पल सर्वे एक तय तरीके से किया जाता है और अगर सैम्पल ध्यान से चुना जाए तो छोटा होने के बावजूद सही नतीजे दे सकता है.”

उनके मुताबिक 1020:1000 के चौंकाने वाले आंकड़े को समझने के लिए अलग-अलग राज्यों के और ग्रामीण-शहरी नतीजों का अध्ययन करना होगा.

तो सर्वे में औरतों का अनुपात मर्दों से ज़्यादा क्यों?
संगीता रेगे के मुताबिक इसकी एक वजह औरतों की ‘लाइफ एक्सपेक्टेंसी ऐट बर्थ’ का ज़्यादा होना है.

भारत के जनगणना विभाग के साल 2013-17 के अनुमान के मुताबिक भारत में औरतों की ‘लाइफ एक्सपेक्टेंसी ऐट बर्थ’ 70.4 साल है जबकि मर्दों की 67.8 साल है.

इसके साथ ही गर्भवती होने और बच्चे पैदा करने के फौरन बाद हुई मौतों का अनुपात, ‘मैटर्नल मॉरटैलिटी रेशियो’ में भी बेहतरी हुई है.

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स्वास्थ्य मंत्रालय की ओर से लोकसभा में दी गई जानकारी के मुताबिक उनके सर्वेक्षणों ने पाया है कि ये दर साल 2014-16 में हर एक लाख बच्चों पर 130 माताओं की मौतों से घटकर 2016-18 में 113 पर आ गई है.

प्रोफेसर भगत के मुताबिक एक वजह औरतों के बारे में सर्वेक्षणों को ज़्यादा जानकारी दिया जाना भी हो सकती है.

वो कहते हैं, “पहले परिवारों में औरतों को महत्व नहीं दिया जाता था पर पिछले दशकों में औरतों पर केंद्रित कई सरकारी योजनाओं के आने से, औपचारिक तौर पर उनका नाम रजिस्टर करवाने का चलन बढ़ा है जिससे अंडर-रिपोर्टिंग घटेगी और वो अब इन गिनतियों में शामिल होंगी.”

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क्या इसका मतलब लिंग जांच और भ्रूण हत्या कम हो गई है?
नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (5) में कुल लिंगानुपात के 1020:1000 होने के साथ ही पैदा होने के वक्त का लिंगानुपात, ‘सेक्स रेशियो ऐट बर्थ’ (एसआरबी), भी जारी किया गया है. ये 929:1000 ही है.

‘सेक्स रेशियो ऐट बर्थ’ में पिछले पांच साल में पैदा हुए बच्चों के लिंगानुपात को मापा जाता है.

प्रोफेसर भगत के मुताबिक लिंग जांच और भ्रूण हत्या का असर समझने के लिए कुल लिंगानुपात के मुकाबले ‘एसआरबी’ बेहतर मापदंड है, और क्योंकि ये अब भी इतना कम है तो ये बताता है कि इस दिशा में अब भी बहुत काम किया जाना बाकी है.

संगीता रेगे पैदा होने के वक्त लड़कों के मुकाबले लड़कियों के कम होने की कुछ और वैज्ञानिक वजहों की ओर भी ध्यान दिलाती हैं.

वो कहती हैं, “कई शोध में पाया गया है कि ऐतिहासिक तौर पर पहला शिशु लड़का होने की संभावना ज़्यादा रही है और लड़का पैदा होने के वक्त मिसकैरेज होने की संभावना ज़्यादा रही है. जैसे-जैसे तकनीक बेहतर हुईं हैं, छोटे परिवार का चलन बढ़ा है और कॉन्ट्रासेप्शन का इस्तेमाल बढ़ा है, जिस सबसे नवजात में लड़कों का अनुपात भी बढ़ रहा है.”

नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के कुल लिंगानुपात के आंकड़ों से तो सभी जानकार हैरान हैं पर आनेवाले समय के लिए उम्मीद भी रखते हैं.

आँकड़ों के इस जाल में ये भी याद कर लें कि जनगणना 2011 में छह साल तक के बच्चों का लिंगानुपात अब तक का सबसे कम – 919 – था.

वो कहती हैं, “जनगणना 2031 से तो मैं बहुत ज़्यादा आशावान हूं. जो पीढ़ी अब स्कूल में है वो तब तक शादी कर चुके होंगे, मां-बाप बनेंगे, और जो बराबरी की सोच योजनाओं और कई कैम्पेन में बार-बार कही जा रही है वो उसे आगे लेकर जाएंगे.”

स्वास्थ्य और जनसंख्या पर काम करने वाले गैर-सरकारी संगठन ‘पॉपुलेशन फर्स्ट’ की निदेशक एएल शारदा इसे “टू गुड टू बू ट्रू” कहते हुए जताती हैं कि सामाजिक सोच में बदलाव भी दिख रहा है.

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