रायबरेली-कार्तिक पूर्णिमा, गंगा स्नान और सात दिनों वाला गंगा मेला

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कार्तिक पूर्णिमा, गंगा स्नान और सात दिनों वाला गंगा मेला

रिपोर्ट- हिमांशु शुक्ला

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डलमऊ (रायबरेली) : उम्रदराज हैं तो बचपन के दिनों में लौट चलिए। युवा हैं तो आप भी देख-जान लीजिए कि देसी मेले कैसे होते हैं। ऐसे आयोजन भारतीय संस्कृति की अलख जगाने वाले होते हैं। जिले का सबसे बड़ा मेला डलमऊ में लगता है। कार्तिक पूर्णिमा पर तीन दिनों तक भीड़ गंगा किनारे रहती है। जिसमें गंवई खुशबू माहौल खुशनुमा बनाती है। हां, जब सजी-धजी बैलगाड़ियों पर परंपरागत गीत गाती महिलाओं की टोली निकलती है तो देखते ही बनता है।

इनसेट-

संस्कृति हमारे पूर्वजों की थाती

डलमऊ के 70 वर्षीय कृष्ण श्याम मिश्र की मानें तो डलमऊ मेले में आत्मीयता की अनुभूति होती थी। बैलों के गले में पड़े घुंघरुओं की मधुर ध्वनि आनंद के साथ कार्तिक पूर्णिमा के नजदीक होने का अहसास कराती थी। बैलगाड़ी को लोग सजाते, बैलों के सींग व खुर की कटाई छंटाई करते थे। बैल गाड़ियों की दौड़ और रास्ते में महिलाओं के मंगलगीत माहौल खुशनुमा बना देते थे। अब उत्साह ठंडा हुआ है, युवाओं की रुचि नहीं हैं। कितु पुराने लोग इस परंपरा को अंतिम सांस तक ले चलने पर आमादा हैं। यह संस्कृति हमारे पूर्वजों की थाती भी है।

बंटे होते थे घाट

पहले गांव क्षेत्र, पुरोहित, घाट सब बंटे होते थे। जिससे जुड़े लोग अपने ही घाटों पर रुकते थे और वहीं स्नान करते थे। जगह तय होने के कारण कई दिनों तक रुकने वाले श्रद्धालुओं के नाते रिश्तेदारों को मिलने में आसानी होती थी। लेकिन अब धीरे-धीरे यह परंपरा खत्म हो गई। अब तो लोग खुद तय करते कि उन्हें कहां डुबकी लगानी है।

बंधते थे रिश्तों के बंधन

कृष्ण श्याम मिश्र बताते हैं कि करीब 20 वर्ष पहले तक सात दिन का मेला लगता था। अब यह घटकर दो दिन का हो गया है। मेले में लोग परिवारजनों के साथ आते थे। वहां दो परिवारों के बीच विवाह के रिश्ते तय हो जाते थे। पुरोहितों की मौजूदगी में तारीख भी निश्चित हो जाती थी।